लगभग 280 साल में ये पहला मौका होगाजब कोरोना वायरस के चलते रथयात्रा रोकी जा सकती है। ये भी संभव है कि रथयात्रा इस बार बिना भक्तों के निकले।हालांकि, इस पर अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। 3 मई को लॉकडाउन के दूसरे फेज की समाप्ति के बाद ही आगे की स्थिति को देखकर इस पर निर्णय लिया जाएगा।

23 जून को रथ यात्रा निकलनी है। अक्षय तृतीया यानी 26 अप्रैल से इसकी तैयारी भी शुरू हो गई है। मंदिर के भीतर ही अक्षय तृतीया और चंदन यात्रा की परंपराओं के बीच रथ निर्माण की तैयारी शुरू हो गई है। मंदिर के अधिकारियों और पुरोहितों ने गोवर्धन मठ के शंकराचार्य जगतगुरु श्री निश्चलानंद सरस्वती के साथ भी रथयात्रा को लेकर बैठक की है, लेकिन इसमें अभी कोई निर्णय नहीं हो पाया है।

नेशनल लॉकडाउन के चलते पिछले एक महीने से भी ज्यादा समय से पुरी मंदिर बंद है। सारी परंपराएं और विधियां चुनिंदा पूजापंडों के जरिए कराई जा रही है।

गोवर्धन मठ (जगन्नाथ पुरी) के शंकराचार्य जगतगुरु स्वामी निश्चलानंदजी सरस्वती ने मंदिर से जुड़े लोगों को सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार करते हुए रथयात्रा के लिए निर्णय लेने की सलाह दी है। मठ का मत ही इसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाएगा। शंकराचार्य ही यहां रथयात्रा के निर्णय पर मुहर लगाएंगे।
  • तीन विकल्पों पर विचार

1. यात्रा निरस्त की जाए
अगर लॉकडाउन आगे बढ़ाया जाता है तो यात्रा निरस्त करना ही विकल्प होगा। इसे लेकर भी मंदिर से जुड़े मुक्ति मंडल के कुछ सदस्य तैयार हैं। सदस्यों का मत है कि भगवान भी चाहते हैं कि उनके भक्त सुरक्षित रहें। ऐसे में यात्रा निरस्त करने में कोई दिक्कत नहीं है।

2. पुरी की सीमाएं सील कर यात्रा निकाली जाए
अगर स्थितियां नियंत्रण में रही तो एक विकल्प ये भी है कि पूरे पुरी जिले में सीमाएं सील करके चुनिंदा लोगों और स्थानीय भक्तों के साथ रथयात्रा निकाली जाए। इसका लाइव टेलिकास्ट चैनलों पर किया जाए जिससे बाहर के श्रद्धालु आसानी से रथयात्रा देख सकें। इस पर सहमति बनने की सबसे ज्यादा संभावना है क्योंकि मठ की तरफ से भी इस पर गंभीरता से विचार करने को कहा गया है।

3. मंदिर के भीतर ही हो यात्रा
मंदिर के अंदर ही रथयात्रा की परंपराओं को पूरा किया जाए। जिसमें मठ और मंदिर से जुड़े लोग ही शामिल हो सकें। अभी भी अक्षय तृतीया, चंदन यात्रा और कई उत्सव मंदिर के अंदर ही किए गए हैं। हालांकि, इस पर रजामंदी होने की उम्मीद सबसे कम है ।

  • 2504 साल पहले 144 साल तक नहीं हुई थी पूजा

मंदिर के रिकॉर्ड में मौजूद तथ्यों के मुताबिक सबसे पहले 2504 साल पहले आक्रमणकारियों के कारण पूरे 144 सालों तक पूजा और विभिन्न परंपराएं बंद रहीं। इसके बाद आद्य शंकराचार्य ने फिर से इन परंपराओं को शुरू किया था। मंदिर को नया स्वरूप 12वीं शताब्दी का है। तब से अब तक लगातार ये परंपराएं निरंतर जारी हैं।

भगवान जगन्नाथ, बड़े भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा के साथ पुरी में विराजित हैं। ये भारत के चार प्रमुख धामों में से एक है, यहां शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठ गोवर्धन मठ भी है।
  • 9 दिन में लौटते हैं भगवान जगन्नाथ

भगवान जगन्नाथ की यह रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से आरंभ होती है। यह यात्रा मुख्य मंदिर से शुरू होकर 2 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर पर समाप्त होती है। जहां भगवान जगन्नाथ सात दिन तक विश्राम करते हैं और आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन फिर से वापसी यात्रा होती है, जो मुख्य मंदिर पहुंचती है। यह बहुड़ा यात्रा कहलाती है।

  • जगन्नाथ रथयात्राः खास बातें
  1. भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा- तीनों के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं।भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है।
  2. भगवान जगन्नाथ के रथ के कई नाम हैं जैसे- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि। रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है, जिनका रंग सफेद होता है। सारथी का नाम दारुक है। रथ पर हनुमानजी और नरसिंह भगवान का प्रतीक होता है।इसके 16 पहिए होते हैं व ऊंचाई साढ़े 13 मीटर तक होती है।
  3. बलरामजी के रथ का नाम तालध्वज है। इनके रथ पर शिवजी का प्रतीक होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मातलिहोते हैं। यह 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है, जो लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है।
  4. सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है। इस पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा जाता है। 12.9 मीटर ऊंचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल होता है।
  5. भगवान जगन्नाथ के रथ पर मढ़े घोड़ों का रंग सफेद, सुभद्राजी के रथ पर कॉफी कलर का, जबकि बलरामजी के रथ पर मढ़े गए घोड़ों का रंग नीला होता है।
  6. बलरामजी के रथ का शिखर लाल-पीला, सुभद्राजी के रथ का शिखर लाल और ग्रे रंग का, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ के शिखर का रंग लाल और हरा होता है।


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Suspense on rath yatra, lockdown may be broken if the tradition of 280 years or without the devotees will come out


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