500 सालों के इंतजार के बाद आखिरकार वह शुभ घड़ी आ ही गई, जब अयोध्या में भगवान राम की जन्मभूमि पर भव्य मंदिर की नींव रखी जाएगी। 5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के करोड़ों हिंदुओं के संकल्प को पूरा करने के लिए अयोध्या में राम मंदिर की नींव रखेंगे। लेकिन, इसके साथ ही अयोध्या से 137 किमी दूर गोरखपुर में स्थित गोरक्षनाथ पीठ में भव्य जश्न की तैयारी है। राम मंदिर विवादित ढांचा ढहाए जाने का मामला हो या अब मंदिर शिलान्यास की बात, हर कार्यक्रम में गोरक्षनाथ पीठ की अहम भूमिका रही है। राम मंदिर आंदोलन की अलख ब्रिटिशकाल में 1855 में यहीं जली थी। महंत गोपाल नाथ से शुरू हुए आंदोलन की नींव अब पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में अपने मूर्तरूप को लेने वाली है।

गोरक्षनाथ पीठ की कहानी, इतिहासकार प्रदीप राव की जुबानी

गोरखनाथ मंदिर के महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद द्वारा संचालित महाविद्यालय के प्राचार्य और इतिहासकार डॉक्टर प्रदीप राव ने बताया कि, गोरक्षनाथ मंदिर और नाथ पंथ ने शैव धर्मावलंबी और शैव पीठ होते हुए भी भारत की राष्‍ट्रीयता और हिंदुत्व संबंधी मुद्दों को हमेशा उठाया है। श्रीराम जन्‍म भूमि आंदोलन के साथ लंबे समय तक किसी पीठ या धर्म परंपरा ने नेतृत्व किया है तो वो गोरक्षपीठ रही है।

1855-60 में विवाद हल होने की ओर था

डॉक्टर प्रदीप राव बताते हैं कि, साल 1855 से 1885 तक गोरक्षनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत गोपालनाथ महाराज थे। 1850 से 60 के बीच में राम जन्मभूमि विवाद लगभग हल होने की ओर था। तब गोपालनाथ ने क्रांतिकारी अमीर अली और आंदोलन में सक्रिय रहे बाबा रामचरण दास को साथ किया और मंदिर विवाद हल करने की पहल शुरू की। अमीर अली का मत था कि जन्मभूमि हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। लेकिन, अंग्रेजों ने ऐसा होने नहीं दिया। अंग्रेजों ने अमीर अली और रामचरण दास को बागी घोषित कर 18 मार्च 1885 को फांसी पर लटका दिया। इस घटना ने लोगों को झकझोर दिया। लेकिन, लोगों को एकजुट करना नहीं छोड़ा गया।

आगे चलकर योगीराज बाबा गंभीरनाथ और ब्रह्मनाथ जी महाराज ने भी इसके लिए प्रयत्‍न किया। इसके बाद साल 1949 में अयोध्‍या में करपात्री महाराज, परमहंस रामचन्‍द्र दास जी महाराज और महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज जुटे और वहां अप्रैल माह में तय किया गया कि, राम जन्मभूमि पर 1108 नवान पाठ करेंगे। लोग बताते हैं कि महंत दिग्विजयनाथ, परमहंस रामचन्‍द्र महाराज ने खुद उस स्‍थान को साफ किया। 22-23 दिसंबर की रात भगवान श्रीराम वहां पर बाल्‍यरूप में प्रकट हुए। सुबह होते-होते ये मामला पूरे देश में फैल गया।

ये बात तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तक पहुंची तो वे मंदिर से मूर्ति हटवाने का प्रयत्‍न करने लगे। यूपी के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री गोविन्‍द वल्‍लभ पंत के निर्देश पर डीएम और स्‍थानीय प्रशासन ने मूर्ति को हटाने का प्रयास किया। लेकिन महंत दिग्विजयनाथ के साथ अन्‍य संतों और 5000 की संख्‍या में जनता को देखते हुए उन्‍हें ये रिपोर्ट देनी पड़ी, कि जनता के दबाव में ये हम नहीं कर सकते। वहां पर उसके बाद पूजा-पाठ चलता रहा।

महंत अवेद्यनाथ बनाए गए थे राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष

इसके बाद साल में 1984 में ये आंदोलन फिर उठ खड़ा हुआ जब आरएसएस के नेतृत्‍व में विहिप की धर्मसभा हुई। तब श्रीराम जन्‍मभूमि आंदोलन के लिए ऐसे संत की आवश्यकता थी, जो संत सर्वमान्य और जो संत सभी प्रकार के सनातन परंपरा के जितने भी मठ-मजहब हैं सभी के लिए वह समान रूप से सर्व स्वीकार हो। ऐसे जब एक संत का नाम खोजा जाता है तो वह नाम गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ का नाम मिलता है। महंत अवेद्यनाथ श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष बनते हैं। परमहंस रामचंद्र दास, महंत नृत्य गोपाल दास महाराज उपाध्यक्ष बनते हैं। इस प्रकार से 1984 से श्री राम जन्म भूमि का आंदोलन एक नए स्वरूप में जन जागरण के साथ शुरू होता है।

ढांचा गिराए जाने का कभी दुख नहीं जाहिर किया

ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ ने कभी ढांचा गिरने पर दुख नहीं जताया। वे 6 दिसंबर 1992 में ढांचा गिरने के साक्षी रहे हैं। महंत अवेद्यनाथ ने कभी इस पर अफसोस जाहिर नहीं किया। जब भी ढांचा गिरने का संदर्भ आया, वे कहते थे कि हिंदू समाज का यह पुरुषार्थ रहा है। वह ढांचा नहीं गिरा। वह भारत के माथे पर लगा जो कलंक था, वह गिरा और वह साफ हुआ।

महंत अवेद्यनाथ का सपना पूरे होने जा रहा
गोरक्षपीठ के कार्यालय सचिव द्वारिका तिवारी बताते हैं कि गोरक्षपीठ का राम जन्मभूमि आंदोलन में अहम योगदान रहा है। ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ न्यास के अध्यक्ष रहे और उन्होंने इस आंदोलन के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। राम मंदिर का भव्य निर्माण अयोध्या की राम लला की भूमि पर हो ना उनका सपना रहा है, जो पूरा होने जा रहा है।



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यह तस्वीर अयोध्या की है। बीते 25 जुलाई को सीएम योगी ने भगवान राम के दर्शन किए थे। वे राम और उनके तीन भाईयों के लिए चांदी के सिंहासन लेकर गए थे।


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